11/15/2016

करमा नृत्य - karama nritya


करमा (Karama) नृत्य छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख लोक नृत्य है। करमा नृत्य परंपरा भारत की कई जनजातियों में देखने को मिलती है।  करमा झारखण्ड के आदिवासियों का एक प्रमुख त्यौहार भी है। छत्तीसगढ़ में, बस्तर, दंतेवाड़ा, कांकेर, नारायणपुर एवं बीजापुर जिले के गोंड, बैग, उरांव, कमार, कवर, पंडो, बिंझवार, बिरहोर अदि आदिवासियों में करमा नृत्य पाया जाता है।

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यह नृत्य कर्म देवता को प्रसन्न करेने के लिये किया जाता है। इसमें वाद्य यन्त्र के रूप में 'मंदार' का इस्तेमाल होता है। प्रायः यह नृत्य विजयादशमी से प्रारम्भ होकर अगली वर्षा ऋतु तक चलता है।

करमा नृत्य के प्रकार 
छत्तीसगढ़ में पाँच शैलियाँ प्रचलित हैं, जिसमें झूमर, लंगड़ा, ठाढ़ा, लहकी और खेमटा हैं।
नृत्य झूम-झूम कर नाचा जाता है, उसे 'झूमर' कहते हैं।
एक पैर झुकाकर गाया जाने वाल नृत्य 'लंगड़ा' है।
लहराते हुए करने वाले नृत्य को 'लहकी' कहते है।
खड़े होकर किया जाने वाला नृत्य 'ठाढ़ा' कहते है।
आगे-पीछे पैर रखकर, कमर लचकाकर किया जाने वाला नृत्य 'खेमटा' है।

करमा नृत्य के दो प्रकार : 

रास करमा (Raas Karama) : 
ये मुख्यतः कंवर जनजाति के लोगो ( केवल पुरूष ) के द्वारा किया जाता है। यह नृत्य मृदंग की थाप पर होता है। इसमे बड़े-बड़े मजीरो का भी इस्तेमाल किया जाता है जिसे "रास" कहते है, इन मंजीरों की वजह से ही इसे रास करमा कहा जाता है।

बैगानी करमा (Baigani Karama):
इस नृत्य में बैगा स्त्री-पुरुष अपने अपने पारंपरिक शैली में करमा गाते हुए नृत्य करते हैं। पुरुष नर्तक मिट्टी की खोज से बने हुए मांदर से थाप देते हैं, जिसके साथ नर्तक स्त्रियां "थिस्की" नामक लकड़ी से बने हुए एक पारंपरिक चटका या क्लैपर से ताल मिलाते हुए नृत्य करती हैं। स्त्रियां अपने सिर पर लंबी-लंबी स्थानीय घास से बने हुए जंजीर जिसे "बीरन" कहा जाता है, बांधे रहती हैं जो गुच्छे में कमर तक लटकती रहती हैं। पुरुष अपने सिर पर मोर पंख और कलगी लगाए रहते हैं। नर्तकों

 के हावभाव और पद मुद्राएं लहरों की भांति सरकती सी प्रतीत होती हैं।

[Last update : 5/11/2018]

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