यदि आप छत्तीसगढ़ से है और किसी ठाकुर गांव से परिचय होगा तो आप ने "बखरी" शब्द जरूर सुना होगा। क्षत्रिय ठाकुरो में यह आम है परंतु इस परंपरा का कारण और उद्देश्य स्पष्ट नहीं है। ज्यादातर ठाकुरो में यह उनके प्रतिष्ठा को दर्शाता है कि वो कौन से "बखरी" से संबंध रखते है। दरअसल बखरी के प्रकार होते है। ज्यादातर गांवो में तीन बखरी होते है, छोटे (छोटा), मइंझला (बीच का) और बड़े (बड़ा)। कुछ गांवो में ये 4 या 5 भी होते है जिंन्हे अलग अलग नामो से जाना जाता है। जैसे जल्लहट, बजरहा और पट्टीदार। परंतु, ये सभी क्षत्रिय ठाकुर ही होते है।
बखरी वास्तव में क्या होता है?
बखरी परंपरा से संबंधित कोई जानकारी तो नहीं मिलती है परंतु आप किताबे पढ़ेंगे तो उनमें बखरी का संबंध एक विशेष प्रकार के घरों से होता है। रामलाल सिंह यादव ने अपनी किताब "परित्राणाय साधूनां" में लिखा है कि बखरी में चारों ओर कमरे, बीच में आंगन। बाहर जाने का एक ही दरवाजा होता था। कमरों में खिड़कियां नहीं होती थी, केवल रोशनदान होते थे। बखरी बनाने की वास्तुकला मुख्य रूप से तीन मुख्य सिद्धांतों पर आधारित थी। पहला सुरक्षा, हर मकान अपने आप में एक किला के समान था। दूसरा कारण, पारिवारिक एकता का था पूरा परिवार अलग-अलग कमरों में रहते हुए भी एक साथ रहता था। तीसरा कारण, महिलाओं की सुरक्षा तथा उन्हें बाहरी आवरण से सुरक्षित रखना था।
हिंदी में भी बखरी का अर्थ गाँव में स्थित ऐसे धरो से है जो साधारण घरों की अपेक्षा बड़ा तथा बढ़िया होता है।
तो ये बखरी परंपरा बना कैसे ?
बखरी परंपरा से संबंधित एक रोचक तथ्य यह है कि इसके सुरुआत के संबंध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। परंतु मान्यता यह है कि सुरुआत में गांव के एक ठाकुर में जितने बेटे थे उन बेटो के परिवार को उन बेटो की वरीयता के अनुसार जाना गया। जैसे कि, सबसे बड़े बेटे का परिवार हुआ "बड़े बखरी", बीच वाले का परिवार हुआ "मइंझला बखरी" और छोटे वाले का परिवार हुआ "छोटे बखरी"। ऐसे ही जीनके 4 बेटे थे उस गांव में आप को 4 बखरी मिलेंगे और जहां 5 थे वहां 5 बखरी मिलेंगे। धीरे-धीरे इन बखारियों में सदस्यों की संख्या बढ़ती चली गयी। इन्हें सामूहिक रूप से सिर्फ "बखरी" कहा जाता है।
By : प्रवीण सिंह