जन्म: 1905
स्थान : रायगढ़ जिले के गाहिरा।
म्रत्यु : 21 नवम्बर, 1996।
स्थान : रायगढ़ जिले के गाहिरा।
म्रत्यु : 21 नवम्बर, 1996।
समाज सुधारक संत गाहिरा गुरु का जन्म सन् 1905 में श्रावण मास की अमावस्या को रात्रि बारह बजे रायगढ़ जिले के लैलूंगा नामक स्थान से लगभग करीब 15 किलोमीटर दूर उड़ीसा से लगे ग्राम "गहिरा" सघन वनाच्छादित दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र मे हुआ था। इनके पिता बुदकी कंवर और माता सुमित्रा थे। इनका वास्तविक नाम रामेश्वर था, लेकिन गाँव के नाम से इनका नाम गाहिरा गुरु होगया।
छत्तीसगढ़ शासन ने संत गाहिरा गुरु के सम्मान मे अंबिकापुर. सरगुजा विश्वविद्यालय अब संत गहिरा गुरू विश्वविद्यालय के नाम से कर दिया है। इसकी घोषणा ३ सितंबर को मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने राजीव गांधी पीजी कॉलेज में आयोजित मेडिकल कॉलेज व उज्ज्वला योजना के शुभारंभ अवसर पर की।
समाज सुधार:
वनवासी समाज के बीच गांव-गांव घूमकर ग्रामवासियों के जीवन स्तर, रहन-सहन, आचरण एवं व्यवहार में सुधार लाने के लिए गहिरा गुरु ने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने वनवासी समाज को बलि प्रथा का त्याग कर वैदिक पद्धति से पूजा करना सिखाया।जिनके कारण वनाञ्चलों में रहने वाले वनवासी समाज के लोगों के बीच संस्कृति और सभ्यता का अवरुद्ध प्रवाह पुन: प्रारम्भ हुआ।
वनवासी समाज के बीच गांव-गांव घूमकर ग्रामवासियों के जीवन स्तर, रहन-सहन, आचरण एवं व्यवहार में सुधार लाने के लिए गहिरा गुरु ने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने वनवासी समाज को बलि प्रथा का त्याग कर वैदिक पद्धति से पूजा करना सिखाया।जिनके कारण वनाञ्चलों में रहने वाले वनवासी समाज के लोगों के बीच संस्कृति और सभ्यता का अवरुद्ध प्रवाह पुन: प्रारम्भ हुआ।
श्री गहिरा गुरु ने उरांव जाति के लोगों को समझाया कि वे पिछड़े, दलित या जनजाति नहीं बल्कि महाबली भीम की संतान घटोत्कच के वंशज हैं। जिससे उनमें आत्म सम्मान और स्वाभिमान जागृत हुआ। उरांव जाति के लोगों का ही ईसाई मिशनरियों ने सर्वाधिक मतांतरण किया था। गहिरा गुरु के प्रयासों से लोग अपनी मूल संस्कृति की ओर वापस लौटने लगे।
श्री गहिरा गुरु ने केसला, बनेकेला, झगरपुर के साथ रायगढ़, कुसमी, सामरवार, श्रीकोट, कैलाश गुफा, जशपुर, सरगुजा, अम्बिकापुर आदि वनवासी क्षेत्रों का भ्रमण कर समाज में सनातन धर्म एवं समाज के प्रति आस्था और कर्तव्य का जागरण किया।
सनातन धर्म संत समाज:
श्रावण मास की अमावस्या, सन् 1943 में गहिरा में उन्होंने "सनातन धर्म संत समाज" की स्थापना की। सुदूर वनाञ्चलों में उनकी ख्याति ऐसी हो गई कि वनवासी उन्हें भगवान का अवतार मानने लगे थे।
वनवासी समाज को सनातन धर्म के दैनिक संस्कारों से परिचित कराने का कार्य भी उन्होंने किया।सोलह संस्कारों, वैदिक विधि से विवाह करना, शुभ्र ध्वज लगाना और उसे प्रतिमाह बदलना, यह गहिरा गुरु द्वारा स्थापित सनातन धर्म संत समाज के प्रमुख सूत्र हैं।
श्रावण मास की अमावस्या, सन् 1943 में गहिरा में उन्होंने "सनातन धर्म संत समाज" की स्थापना की। सुदूर वनाञ्चलों में उनकी ख्याति ऐसी हो गई कि वनवासी उन्हें भगवान का अवतार मानने लगे थे।
वनवासी समाज को सनातन धर्म के दैनिक संस्कारों से परिचित कराने का कार्य भी उन्होंने किया।सोलह संस्कारों, वैदिक विधि से विवाह करना, शुभ्र ध्वज लगाना और उसे प्रतिमाह बदलना, यह गहिरा गुरु द्वारा स्थापित सनातन धर्म संत समाज के प्रमुख सूत्र हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक से संबंध:
श्री गहिरा गुरु का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रथम परिचय अंबिकापुर के प्रचारक श्री भीमसेन चोपड़ा के द्वारा हुआ। आगे चलकर श्री भीमसेन चोपड़ा भी गहिरा गुरु की कृपा से अध्यात्म मार्ग पर चल पड़े। गहिरा गुरुजी ने रायपुर, कापू, मुंडेकेला, सीतापुर, प्रतागढ़ कोतवा आदि स्थानों पर अपने अनेक शिष्य बनाए। उनके शिष्यों की संख्या दो लाख से भी ज्यादा पहुंच गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक प.पू.श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर "श्री गुरुजी" से उनका प्रथम परिचय जशपुर में कल्याण आश्रम के नये भवन के लोकार्पण के अवसर पर हुआ। इसके बाद श्री गहिरा गुरु का संघ से निकट का सम्बंध बन गया।
श्री गहिरा गुरु का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रथम परिचय अंबिकापुर के प्रचारक श्री भीमसेन चोपड़ा के द्वारा हुआ। आगे चलकर श्री भीमसेन चोपड़ा भी गहिरा गुरु की कृपा से अध्यात्म मार्ग पर चल पड़े। गहिरा गुरुजी ने रायपुर, कापू, मुंडेकेला, सीतापुर, प्रतागढ़ कोतवा आदि स्थानों पर अपने अनेक शिष्य बनाए। उनके शिष्यों की संख्या दो लाख से भी ज्यादा पहुंच गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक प.पू.श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर "श्री गुरुजी" से उनका प्रथम परिचय जशपुर में कल्याण आश्रम के नये भवन के लोकार्पण के अवसर पर हुआ। इसके बाद श्री गहिरा गुरु का संघ से निकट का सम्बंध बन गया।
श्री गुरुजी ने अपना सम्पूर्ण जीवन भक्ति मार्ग पर चलते हुए निष्काम कर्मयोगी की तरह व्यतीत किया। 21 नवम्बर, 1996 को देवोत्थान एकादशी के दिन रामेश्वर गहिरा गुरु की मृत्यु होगई।