भारत के छत्तीसगढ़ के अलावा अनेक प्रांतों में सावन महीने की सप्तमी को छोटी॑-छोटी टोकरियों में मिट्टी डालकर उनमें अन्न के दाने बोए जाते हैं। ये दाने धान, गेहूँ, जौ के हो सकते हैं। भोजली नई फ़सल की प्रतीक होती है। भोजली याने भो-जली। इसका अर्थ है भूमि में जल हो। भाद्रपद (भादो) में कृष्ण पक्ष प्रतिपदा के दिन भोजली को जल में विसर्जित किया जाता है, और इस दिन भोजली त्यौहार मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ में भोजली कान में लगाकर मित्र बनाए जाते हैं और इस मित्रता को जीवन भर निभाया जाता है।
कैसे बोया जाता है ? :
जिस टोकरी या गमले में ये दाने बोए जाते हैं उसे घर के किसी पवित्र स्थान में छायादार जगह में स्थापित किया जाता है।भोजली के लिए खाद-मिट्टी कुम्हार के घर से ही लाया जाए।इसके बाद महतो के घर से चुरकी और टुकनी (टोकरी) लाई जाती है। महतो गाँव या समाज के सबसे वृद्ध और सम्मानित व्यक्ति होते हैं। इसके बाद राजा के घर से गेहूं लाया जाता है। राजा बैगा को कहते हैं, जो गोंड़ समुदाय से होते हैं। इसे सावन शुक्ल नवमीं को बो दिया जाता है।
विसर्जन:
बोवाई के बाद भोजली की अच्छे से देखभाल की जाती है। महिलायें उसकी पूजा करती हैं। भोजली दाई (देवी) के सम्मान में भोजली सेवा गीत गाये जाते हैं। सामूहिक स्वर में गाये जाने वाले भोजली गीत छत्तीसगढ की शान हैं।
भोजली गीत
भोजली के पास बैठकर महिलाएं जो गीता गाती हैं, गीत में महिलाएं गंगा देवी को सम्बोधित करती हुई गाती है -
देवी गंगा
देवी गंगा लहर तुरंगा
हमरो भोजली देवी के
भीजे ओठों अंगा।
मांड़ी भर जोंधरी
पोरिस कुसियारे
जल्दी जल्दी बाढ़ौ भोजली
हो वौ हुसियारे।
खेतों में इस समय धान की बुआई व प्रारंभिक निराई गुडाई का काम समापन की ओर होता है। किसानों की लड़कियाँ अच्छी वर्षा एवं भरपूर भंडार देने वाली फसल की कामना करते हुए फसल के प्रतीकात्मक रूप से भोजली का आयोजन करती हैं। इसे रक्षाबंधन के दूसरे दिन विसर्जित कर दिया जाता है। नदी, तालाब और सागर में भोजली को विसर्जित करते हुए अच्छी फ़सल की कामना की जाती है।
विभिन्न राज्यो में भोजली:
ब्रज और उसके निकटवर्ती प्रान्तों में इसे 'भुजरियाँ' कहते हैं। इन्हें अलग-अलग प्रदेशों में इन्हें 'फुलरिया', 'धुधिया', 'धैंगा' और 'जवारा' (मालवा) या भोजली भी कहते हैं।
भोजली का इतिहास:
भोजली बोने की प्रथा 8वीं शताब्दी से प्राचीन प्रतीत होती है। पृथ्वीराज चौहान के काल की लोकप्रचलित गाथा आल्हा के अनुसार चन्द्रवंशी राजा परमाल की पुत्री चन्द्रावली को उसकी माता सावन में झूला झुलाने के लिए बाग में नहीं ले जाती। पृथ्वीराज अपने पुत्र ताहर से उसका विवाह करना चाहता था। आल्हा-ऊदल उस समय कन्नौज में थे। ऊदल को स्वप्न में चन्द्रावली की कठिनाई का पता चलता है। वह योगी के वेश में आकर उसे झूला झुलाने का आश्वासन देता है। पृथ्वीराज ठीक ऐसे ही अवसर की ताक में था। अपने सैनिकों को भेजकर वह चन्द्रावली का अपहरण करना चाहता है। युद्ध होता है। ताहर चन्द्रावली को डोले में बैठाकर ले जाना चाहता है, तभी ऊदल, इन्दल और लाखन चन्द्रावली की रक्षा करके उसकी भुजरियाँ मनाने की इच्छा पूर्ण करते हैं। नागपंचमी को भी भुजरियाँ उगायी जाती हैं। उसे पूजा के पश्चात 'भुजरियाँ' गाते हुए नदी अथवा तालाब अथवा कूएँ में सिराया जाता है। इस अवसर पर गाए जाने वाले लोक-गीतों को भोजली गीत और इस पर्व को भोजली पर्व कहा जाता है।
कवर्धा में भोजली :
कवर्धा राज परिवार में वर्ष 1728 से भोजली पर्व मनाने की परंपरा शुरू हुई। तब तत्कालीन कवर्धा स्टेट के राजा महाबली सिंह थे।