भारत के स्कूलों में 2026 से आएगा नया बदलाव — कक्षा 3 से 12 तक एआई विषय का प्रस्ताव



सुबह का वक्त है, साल 2026। एक सरकारी स्कूल की कक्षा में अध्यापिका टैबलेट उठाकर खड़ी हैं।

गुणा-पहाड़े की जगह आज वह बच्चों को एक ऐनिमेशन दिखा रही हैं - जिसमें बताया गया है कि कंप्यूटर पैटर्न देखकर “सीखते” कैसे हैं।

एक नन्हा हाथ उठता है - 
“मैम, तो क्या मेरा फोन मुझसे ज़्यादा समझदार है?”

क्लास में हँसी गूंजती है, पर सवाल वहीं रुक जाता है।
यही है भारत की नई कहानी - जहाँ आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) अब किसी विज्ञान-कल्पना का शब्द नहीं, बल्कि बच्चों की पढ़ाई का हिस्सा बन रहा है।

शिक्षा में नया मोड़

केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) ने देश के इतिहास में पहली बार एक नई योजना बनाई है -
कक्षा 3 से 12 तक एआई विषय के रूप में शामिल होगा।

यह प्रस्ताव फिलहाल एनसीईआरटी के विशेषज्ञों के पास समीक्षा के लिए है। अगर सब कुछ तय योजना के अनुसार हुआ, तो अप्रैल 2026 से इसे देशभर में लागू किया जाएगा।

अगले वर्ष से शिक्षकों की ट्रेनिंग शुरू होगी, फिर पाठ्यपुस्तकें, डिजिटल टूल और संसाधन तैयार होंगे।
यानी आने वाली पीढ़ी के लिए “AI” भी गणित, विज्ञान और अंग्रेज़ी की तरह टाइमटेबल में होगा।

“हम हर बच्चे को प्रोग्रामर नहीं बना रहे,
बल्कि ऐसा नागरिक बना रहे हैं जो समझ सके - - तकनीक सोचती कैसे है।”
- CBSE प्रस्ताव का उद्देश्य

जल्दी शुरुआत क्यों ज़रूरी है ?

विशेषज्ञ मानते हैं - जिज्ञासा की असली उम्र बचपन है।
जब तक बच्चे किशोरावस्था में पहुँचते हैं, उनका ध्यान अंकों और परीक्षा पर सिमट जाता है।

फ़िनलैंड और एस्टोनिया जैसे देशों में बच्चे सात साल की उम्र से ही कोडिंग और एआई को खेल-खेल में सीखते हैं।
भारत का मॉडल इनसे आगे जा सकता है - जहाँ कम्प्यूटेशनल सोच, नैतिक शिक्षा और भारतीय संदर्भ को साथ जोड़ा जाएगा।

उदाहरण के तौर पर - गाँवों में फसल की भविष्यवाणी, भारतीय भाषाओं में आवाज़ पहचान, और स्थानीय समस्याओं का एआई से समाधान।

शोध क्या बताता है

सिंगापुर और दक्षिण कोरिया के अनुभव बताते हैं कि शुरुआती एआई शिक्षा से बच्चों में रचनात्मकता और समस्या सुलझाने की क्षमता बढ़ती है।
लेकिन खतरा भी है - अधिक स्क्रीन समय और समूह में संवाद की कमी।

OECD (2024) की एक रिपोर्ट के अनुसार, सफलता उन्हीं देशों को मिली जहाँ दो चीज़ें मौजूद थीं -

  1. प्रशिक्षित शिक्षक
  2. संदर्भ-आधारित सीखने का माहौल

यानि असली ताकत तकनीक में नहीं, शिक्षण दृष्टिकोण में है।

शिक्षकों की चुनौती

भारत के ज़्यादातर स्कूल, ख़ासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, अभी डिजिटल लैब या स्मार्ट क्लास से भी दूर हैं।
लाखों शिक्षक अभी तक कोविड के बाद आए डिजिटल टूल्स से पूरी तरह सहज नहीं हुए हैं।

शिक्षा मंत्रालय ने इस अंतर को पाटने के लिए टीचर हैंडबुक, गाइडबुक और ई-मॉड्यूल्स तैयार करने की योजना बनाई है, जिसकी समय सीमा दिसंबर 2025 तय की गई है।

“अगर बच्चा टीचर से तेज़ सीख जाए,
तो क्लास का संतुलन बिगड़ जाता है।
इसलिए पहले शिक्षक को तैयार करना ज़रूरी है।”
- दिल्ली की एक प्रिंसिपल

भविष्य का पाठ्यक्रम

 योजनानुसार, पाठ्यक्रम को तीन स्तरों में बाँटा गया है -

  • कक्षा 3 - 5:खेल और कहानी के ज़रिए तर्क व पैटर्न की समझ।
  • कक्षा 6 - 8:सरल कोडिंग, चैटबॉट्स, डेटा और नैतिक निर्णय।
  • कक्षा 9 - 12:प्रोजेक्ट आधारित अध्ययन - खेती, शासन या स्वास्थ्य में एआई का उपयोग।

मुख्य सिद्धांत: “AI for Life, not for Exams.”

संतुलन की ज़रूरत

भारत की डिजिटल खाई अब भी गहरी है।
कई जिलों में बिजली तक स्थायी नहीं, तो स्मार्ट क्लास की कल्पना कठिन है।

अगर ढांचा मजबूत नहीं हुआ, तो यह सुधार भी सिर्फ़ शहरों तक सिमट जाएगा।
साथ ही, स्क्रीन पर अत्यधिक निर्भरता बच्चों की कल्पना शक्ति को भी प्रभावित कर सकती है।

“हम ऐसे बच्चे नहीं चाहते जो चैटबॉट से बात तो करें,
मगर एक-दूसरे से न करें।”
- डॉ. मीरा भाटिया, शिक्षाविद

इसीलिए ज़रूरी है मानव-केंद्रित शिक्षा,
जहाँ तकनीक के साथ संवेदना और नैतिकता भी सिखाई जाए।

दुनिया से सबक

फ़िनलैंड में बच्चे सबसे पहले ‘न्याय’ और ‘डेटा प्राइवेसी’ पर चर्चा करते हैं।
जापान में रोबोटिक्स के साथ दर्शन पढ़ाया जाता है -
क्या रोबोट में भावनाएँ हो सकती हैं?

एस्टोनिया ने एआई को नागरिक शास्त्र से जोड़ा है - ताकि बच्चे समझें कि तकनीक समाज की सेवा के लिए है, न कि उसके स्थान पर।

भारत अपनी भाषाई और सांस्कृतिक विविधता के साथ इसे और आगे ले जा सकता है -
एआई को कृषि, जलवायु, और लोक-स्वास्थ्य जैसे वास्तविक विषयों से जोड़कर।

उम्मीदें और चुनौतियाँ

अगर यह पहल संतुलन और दूरदृष्टि के साथ लागू हुई,
तो भारत की शिक्षा व्यवस्था की डीएनए ही बदल सकती है।

आप कल्पना कीजिए -
छत्तीसगढ़ का कोई बच्चा अपने गाँव की बारिश का अनुमान लगाने वाला छोटा मॉडल बना रहा हो,
या असम की एक छात्रा असमिया भाषा समझने वाला वॉयस असिस्टेंट तैयार कर रही हो।

पर अगर इसे बिना तैयारी, संसाधनों या शिक्षक-प्रशिक्षण के लागू किया गया -
तो यही योजना डिजिटल असमानता को और बढ़ा देगी।

इंसानियत की पाठशाला

आख़िरकार यह कहानी मशीनों की नहीं, इंसानों की है।
बच्चों को यह समझाने की -
कौन सी तकनीक किसने बनाई, क्यों बनाई, और किस पर असर डालती है।

जो पीढ़ी यह जान लेगी कि यूट्यूब की सिफ़ारिश क्यों आई या एआई किसी निष्कर्ष पर कैसे पहुँचा —
उसे गुमराह करना मुश्किल और सशक्त बनाना आसान होगा।

“लक्ष्य यह नहीं कि बच्चे मशीनों जैसे सोचें,
बल्कि यह कि वे मशीनों से आगे सोच सकें।”

अगर भारत अपने स्कूलों में यह परिवर्तन धैर्य, संवेदना और विवेक के साथ लाता है, तो यह सुधार शिक्षा के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होसकता है।


विशेष संवाददाता:

प्रवीण सिंह

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