Rulane Festival रौलाने महोत्सव क्या है?

 


रौलाने हिमाचल प्रदेश के किन्नौर ज़िले में मुख्यतः संगला घाटी, कामरू में सर्दियों के अंत में, यानी फ़रवरी–मार्च के बीच मनाया जाता है। कुछ जगह इसे रौलांग भी कहा जाता है ।

हिमालय की लोककथाएँ कहती हैं कि ऊँचे पहाड़ों पर दिव्य परियाँ अपने महलों से उतरकर बर्फीले रास्तों पर चलती हैं। ये परियाँ रक्षक मानी जाती हैं - जो कठोर सर्दियों के दौरान गाँवों की निगरानी करती हैं और लोगों को सुरक्षित रास्ता दिखाती हैं। इन्हीं के सम्मान में किन्नौर के ग्रामीण रौलाने नाम का दुर्लभ और कम-ज्ञात पर्व मनाते हैं।

त्योहार की शुरुआत एक अनोखी घोषणा से होती है—
“दो पुरुषों का विवाह होगा।”
यह विवाह प्रतीकात्मक है, वास्तविक नहीं। एक को रौला (दूल्हा) और दूसरे को रौलाने (दुल्हन) का रूप दिया जाता है। दोनों को भारी किन्नौरी ऊनी वस्त्र, रत्नों से सजे शॉल, और पारंपरिक सिरपोश पहनाए जाते हैं। चेहरे छिप जाते हैं, हाथ मोटे दस्तानों में गुम हो जाते हैं, और मनुष्य एक रहस्यमयी पात्र जैसा दिखने लगता है- मानो मानव और दैवीय के बीच कोई धुंधला अस्तित्व।

स्थानीय विश्वास कहता है कि यह वेश सिर्फ सजावट नहीं - यह दुनियाओं के बीच का पुल है। रौला-रौलाने वह माध्यम बनते हैं, जिसके जरिए सौनी - यानी मार्गदर्शक परियाँ - गाँवों को आशीर्वाद देती हैं।

पूरी सजावट के बाद यह जोड़ा धीमी चाल में गाँव के मध्य स्थित प्राचीन नागिन नारायण मंदिर तक पहुँचता है। वहाँ वे एक बेहद धीमा, तालबद्ध और गंभीर युगल-नृत्य करते हैं। इसमें कोई चमक-दमक नहीं, कोई छलाँग या तेज़ नृत्य नहीं—सिर्फ शांत, संकल्पित गतियाँ। ग्रामीण मानते हैं कि यही वह क्षण होता है जब स्वर्ग धरती के थोड़ा और करीब आ जाता है।

यह बात बाहर के लोग शायद ही जानते हों कि किन्नौर हजारों साल पुरानी सतत सभ्यता का हिस्सा है। यहाँ के लोग हिमस्खलनों, आक्रमणों और कठिन प्रवासों के बीच भी अपनी संस्कृति को जिंदा रखे हुए हैं। इसलिए रौलाने में नाचने वाले पुरुष पर्यटकों के लिए नहीं - बल्कि अपने पूर्वजों, अपने मवेशियों, फसलों, परिवार और समुदाय की रक्षा व समृद्धि के लिए नृत्य करते हैं। वे अपनी सौनियों के वापस आने की उम्मीद में यह परंपरा निभाते हैं।

इन त्योहारों में भी प्लास्टिक या कृत्रिम रोशनी का प्रयोग नहीं किया जाता। सिर्फ ऊन, लकड़ी, घरों में बने वाद्य, पहाड़ों की हवा, और पीढ़ियों से चली आ रही अटूट आस्था। सादगी ही इन त्योहारों की भव्यता है।


कब से मनाया जा रहा है ?

रौलाने महोत्सव करीब 800–1200 साल पुरानी परंपरा है। किन्नरों की सांस्कृतिक जड़ें थिब्बती-बोन (Bön) और पूर्व-बौद्ध शमनिक परंपराओं से आती हैं, जो 1,000 साल से भी पुरानी हैं। इसके अलावा “मुखौटा-नृत्य + दैवीय पात्र + सर्दियों के अंत का रीतिगत नृत्य” हिमालयी सभ्यताओं में 10वीं–12वीं सदी में स्थापित हो गया था।
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